कक्षा 10 सीबीएसई - हिंदी (अ)
प्रस्तुत पाठ 'नौबतखाने में इबादत' प्रसिद्ध साहित्यकार यतींद्र मिश्र द्वारा रचित है। यह पाठ भारत रत्न से सम्मानित शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के जीवन, उनकी संगीत साधना, व्यक्तित्व और विरासत पर आधारित एक संस्मरण है। यह बताता है कि कैसे एक सामान्य मुस्लिम परिवार में जन्म लेकर भी बिस्मिल्ला खाँ ने अपनी कला और भक्ति से भारतीय संगीत को एक नई ऊँचाई दी और सांप्रदायिक सद्भाव का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।
पाठ की शुरुआत काशी (वाराणसी) और शहनाई के गहरे संबंध से होती है। बिस्मिल्ला खाँ का जन्म डुमराँव (बिहार) में हुआ था, जहाँ सोन नदी के किनारे की घास से शहनाई बजती है। वे पाँच-छह साल की उम्र में अपने ननिहाल काशी आ गए थे, जहाँ उन्होंने अपने मामा अलीबख़्श और नाना से शहनाई बजाना सीखा। काशी विश्वनाथ मंदिर और बालाजी मंदिर उनका रियाज़ करने का प्रमुख स्थान था। वे गंगा-जमुनी तहज़ीब के प्रतीक थे, जहाँ वे एक मुस्लिम होते हुए भी हिंदू मंदिरों में शहनाई बजाते थे और काशी विश्वनाथ तथा बालाजी के प्रति गहरी आस्था रखते थे।
बिस्मिल्ला खाँ ने शहनाई को विवाह जैसे अवसरों से निकालकर शास्त्रीय संगीत के मंच पर प्रतिष्ठित किया। वे शहनाई को 'मंगलगान' का वाद्य मानते थे। उन्हें 15 अगस्त, 1947 को लाल किले पर शहनाई बजाने का गौरव प्राप्त हुआ। उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से नवाजा गया।
पाठ उनके सादगी भरे जीवन, संगीत के प्रति उनके समर्पण, ईश्वर में उनकी अटूट श्रद्धा और गंगा तथा काशी के प्रति उनके असीम प्रेम को उजागर करता है। वे हमेशा कहते थे कि 'खुदा' उनके संगीत में है और उन्हें 'सुर' बख़्श दे। वे एक सच्चे कलाकार थे जो धर्म से बढ़कर कला और मानवता को महत्व देते थे। इस पाठ के माध्यम से यतींद्र मिश्र ने एक महान कलाकार के जीवन और उनकी अद्भुत संगीत यात्रा को जीवंत किया है, जो हमें कला की साधना, सादगी और सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश देती है।